अपने अपने काम की वस्तुएँ
उन्हें विश्वास था कि
यही एक जगह है
जहाँ प्रतिस्पर्ध्दा तो है
लेकिन / बिना कुछ दिए
प्राप्त हो सकती हैं
वो वस्तुएँ / जो बन चुकी हैं
उनके जीवन का अहम् हिस्सा।
वे टूट पड़ रहे थे
कचरे के ढेर पर
एक लड़का
चुनने लगा था / कागज, पोलिथीन
लोहे के टूटे-फूटे डिब्बे/और
अन्य वस्तुएँ
दूसरे छोर पर / कुछ लड़के
चुनने का प्रयास कर रहे थे
बासी रोटी और फलों के अध सड़े टुकड़े
जो बच गए थे / गाय, कुत्तों
और सूअरों की निगाहों से ।
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संजय परसाई की एक कविता
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ये भी दारुण सत्य है :-(
ReplyDelete- लावण्या
अफ़सोस ,अक्सर ऐसा दिखने को मिल जाता है जो हम देखना ही नही चाहते। अच्छी रचना।
ReplyDeleteबहुत सटीक चित्रण किया है।बधाई\
ReplyDeleteयह सब भी हमारे भारत मै देखने को मिलता है, जहां पत्थर की मुर्ति पर करोर्डो का दान चढ जाता है, लेकिन उस के बनाये लोगो की दुर्दशा आप ने अपनी कविता मै कह दी.... बहुत ही भावुक
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत सटीक सत्य है..
ReplyDeleteधन्यवाद