4/01/2009

कुछ करो

सिसकता ये शज़र देखो और कुछ करो,
उजड़ता ये शहर देखो और कुछ करो ।

भ्रष्टता के पैमाने यहाँ तय हो रहे,
शिष्टता पर कहर देखो और कुछ करो।

ज़िन्दगी का मूल्य कितना गिर चुका,
हाथ में हर ज़हर देखो और कुछ करो ।

दूध पहले - बाद पानी और अब तो खून है,
बदलती ये नहर देखो और कुछ करो ।

हर गली के मोड़ पर है खौफ की दादागिरी,
सिसकियाँ दरबदर देखो और कुछ करो।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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2 comments:

  1. bahot hi badhiya gazal... ankur ji ko badhaaee shayad ye gazal pahale bhi hamne padhi thi aapke hi blog pe.... sahi taur pe yaad nai aaraha magar achha asaar nikle hai...


    arsh

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  2. वाकई कुछ तो करना होगा। कहने का जमाना गया।

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