
हादसों ने तुम्हें रातों में जगाया ह¨गा ।
आज फिर रहनुमाओं की झुकी-झुकी नज़रें,
आज फिर आदमी ने सर को उठाया होगा ।
रोशनी के लिए ताउम्र तरसता ही रहा,
उसने बस्ती में कोई दीप जलाया होगा ।
हरेक वक्त जो अपनों से रहा खौफ़ जदा,
वो मेरी मुल्क की तकदीर का साया होगा ।
शिवालयों में जिसने ढूँढा है हर बार खुदा,
उसने भगवान को अज़ान में पाया होगा ।
गोलियाँ सरहदों पे आज फिर चलीं ‘आशीष’
गु़फ्तगू करने को जालिम ने बुलाया होगा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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