12/14/2008

आस्‍था



।। आस्था ।।



आस्थाएँ गढ़ती हैं ईश्‍वर ।


हमें विश्‍वास है


भलाई, ईमानदारी, सच्चाई पर ।


यही विश्‍वास बनाता है


किसी को देवतुल्य ।


जीवन भर जिन्हें पूजते हैं,


आचरण में उन्हीं से होते हैं दूर ।


कोई और नहीं,


हम ही तोड़ते हैं अपना विश्‍वास ।


भ्रष्‍ट करते हैं धर्म ।


पूजने की जगह


जीने लगें आस्थाएँ,


तो होंगे उस ईश्‍वर के करीब


जिसे पाने को उम्रभर


करते रहे जप, तप, उपवास ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


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2 comments:

  1. हम ही तोड़ते हैं अपना विश्‍वास ।
    भ्रष्‍ट करते हैं धर्म ।
    पूजने की जगह
    जीने लगें आस्थाएँ,
    आप ने बिलकुल सही लिखा है.
    धन्यवाद

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