।। मौजूदगी ।।
न जाने कैसी हवा, पानी और
खादकी तलाश में
शहर आ गया हूँ,
जबकि रोज गुण गाता हूँ गाँव के ।
तो हम यहाँ क्यों हैं ?
अक्सर पूछती है पत्नी
और मैं गिनाता हूँ बहाने
छुपाते हुए शहर के नुक्स सारे ।
तो अपनी बेचैनी में प्रश्न किया करती है
कि कौन सा कोना सन्तुष्ट हुआ,
यहाँ आने से
जैसे आज विभोर पूछ रहा था
अपने पापा से -
‘‘खण्डवा कितना अच्छा है न, पापा ।
हम वहाँ क्यों नहीं रहते ?’’
जानता हूँ, बेटे को समझाने के लिए
एक पिता छुपा गया होगा
शहर के ऐब सारे ।
अक्सर ही जुटाना होते हैं
हम जैसे लोगों को शहर आने के बहाने ।
अक्सर बावस्ता होता है प्रश्न
हम शहर में क्यों हैं ?
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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और मैं गिनाता हूँ बहाने
ReplyDeleteछुपाते हुए शहर के नुक्स सारे ।
" गाँव और शहर के बीच उलझती खीजती जिन्दगी का सजीव चित्रण..... अच्छा लगा पढ़ कर"
Regards
बहुत सुन्दर चित्रण !
ReplyDeleteराम राम !
सत्य वचन, आप ने बिलकुल सही लिखा.
ReplyDeleteधन्यवाद