12/11/2008

मौजूदगी






।। मौजूदगी ।।




न जाने कैसी हवा, पानी और



खादकी तलाश में



शहर आ गया हूँ,



जबकि रोज गुण गाता हूँ गाँव के ।



तो हम यहाँ क्यों हैं ?



अक्सर पूछती है पत्नी



और मैं गिनाता हूँ बहाने



छुपाते हुए शहर के नुक्स सारे ।



तो अपनी बेचैनी में प्रश्‍न किया करती है



कि कौन सा कोना सन्तुष्‍ट हुआ,



यहाँ आने से



जैसे आज विभोर पूछ रहा था



अपने पापा से -



‘‘खण्डवा कितना अच्छा है न, पापा ।



हम वहाँ क्यों नहीं रहते ?’’



जानता हूँ, बेटे को समझाने के लिए



एक पिता छुपा गया होगा



शहर के ऐब सारे ।



अक्सर ही जुटाना होते हैं



हम जैसे लोगों को शहर आने के बहाने ।



अक्सर बावस्ता होता है प्रश्‍न



हम शहर में क्यों हैं ?



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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता



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3 comments:

  1. और मैं गिनाता हूँ बहाने
    छुपाते हुए शहर के नुक्स सारे ।
    " गाँव और शहर के बीच उलझती खीजती जिन्दगी का सजीव चित्रण..... अच्छा लगा पढ़ कर"
    Regards

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  2. बहुत सुन्दर चित्रण !
    राम राम !

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  3. सत्य वचन, आप ने बिलकुल सही लिखा.
    धन्यवाद

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