।। पहचान ।।
हम सिमटते जा रहे हैं
अपने घर, परिवार और
खुद के दायरे में ।
अनगिनत मुश्किलों के बीच
एक दिक्कत यह भी
नहीं बता सकते किसी को
अपना पता ।
नुक्कड़ के पान वाले या
परचुन की दुकान का हवाला
देते हुए कहते हैं,
‘‘पूछ लेना मुन्ने का घर’’ ।
रास्तों व नम्बरों की उलझन
से बचने के लिए
हम लेते हैं बच्चों का नाम ।
तमाम रिश्तों के साथ
गुम होती पहचान को
बचाने में बच्चे ही काम आते हैं ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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बहुत सुंदर कविता लिखी आप ने .
ReplyDeleteधन्यवाद
... प्रसंशनीय रचना है, कवि व आप दोनो को बधाई ।
ReplyDeleteसुन्दर कविता है, पढवाने के लिए शुक्रिया।
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