12/16/2008

पहचान



।। पहचान ।।



हम सिमटते जा रहे हैं


अपने घर, परिवार और


खुद के दायरे में ।


अनगिनत मुश्किलों के बीच


एक दिक्कत यह भी


नहीं बता सकते किसी को


अपना पता ।


नुक्कड़ के पान वाले या


परचुन की दुकान का हवाला


देते हुए कहते हैं,


‘‘पूछ लेना मुन्ने का घर’’ ।


रास्तों व नम्बरों की उलझन


से बचने के लिए


हम लेते हैं बच्चों का नाम ।


तमाम रिश्‍तों के साथ


गुम होती पहचान को


बचाने में बच्चे ही काम आते हैं ।


-----



‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001


कृपया मेरा ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com भी पढें ।

3 comments:

  1. बहुत सुंदर कविता लिखी आप ने .
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. ... प्रसंशनीय रचना है, कवि व आप दोनो को बधाई ।

    ReplyDelete
  3. सुन्‍दर कविता है, पढवाने के लिए शुक्रिया।

    ReplyDelete

अपनी अमूल्य टिप्पणी से रचनाकार की पीठ थपथपाइए.