।। आस्था ।।
आस्थाएँ गढ़ती हैं ईश्वर ।
हमें विश्वास है
भलाई, ईमानदारी, सच्चाई पर ।
यही विश्वास बनाता है
किसी को देवतुल्य ।
जीवन भर जिन्हें पूजते हैं,
आचरण में उन्हीं से होते हैं दूर ।
कोई और नहीं,
हम ही तोड़ते हैं अपना विश्वास ।
भ्रष्ट करते हैं धर्म ।
पूजने की जगह
जीने लगें आस्थाएँ,
तो होंगे उस ईश्वर के करीब
जिसे पाने को उम्रभर
करते रहे जप, तप, उपवास ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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हम ही तोड़ते हैं अपना विश्वास ।
ReplyDeleteभ्रष्ट करते हैं धर्म ।
पूजने की जगह
जीने लगें आस्थाएँ,
आप ने बिलकुल सही लिखा है.
धन्यवाद
SUNDAR KAVITA
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