12/02/2008

तरक्‍की



।। तरक्की ।।



वहाँ ज्यादा कुछ नहीं था


एक चाय की दुकान


बस का इन्तजार करते


लोगों के बैठने की जगह


और एक दुकान साइकिल की ।


गाँव के बाहर बस स्टैण्ड कही जाने वाली


जगह पर इतना ही हुआ करता था ।


कच्ची सड़क के एक ओर थी


गंगाराम चाय की दुकान


और इसके ठीक सामने


गरीब नवाज साइकिल सर्विस ।


रफीक उस्ताद की दुकान से ही


किराए पर लेकर लोगों ने


साइकिल की सवारी सीखी थी ।


शायद इसीलिए ठीक-ठाक


चल रही थी उनके जीवन की गाड़ी ।


रफीक उस्ताद इसे खुदा का फजल कहा करते थे ।


ग्राहक के मामले में गंगाराम


रफीक उस्ताद से गरीब ही था ।


अक्सर रफीक उस्ताद,


यूँ ही अपनी ओर से


लोगों को चाय पिलाया करते थे ।


गंगाराम भी खूब समझता था


तभी तो खैरियत पूछने पर


वह कहा करता था


‘‘उस्ताद का फजल है’’


धीरे-धीरे तरक्की हुई ।


गाँव आबाद हुआ


बसों की आवाजाही बढ़ी


अखबार आने लगा


रेडियो और टी. वी. आया


पर बस स्टैण्ड आज भी वहीं है ।


वहीं है गंगाराम चायवाला


और रफीक उस्ताद साइकिल वाले ।


गंगाराम की दुकान पर मिठाई भी मिलती है,


लेकिन रफीक मियाँ यहाँ नहीं आते


न गंगाराम कहता है


‘‘उस्तद का फजल है’’


दोनों दुकानों के बीच


अब पक्की सड़क बन गई है ।


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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक
कविता



मैं पंकज के प्रति मोहग्रस्त हूँ, निरपेक्ष बिलकुल नहीं । आपसे करबध्द निवेदन है कि कृपया पंकज की कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्य दें ।



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2 comments:

  1. बैरागी जी
    वाकई दिल को छूने वाली कविता ...............

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  2. प्रभावशाली चित्रण किया है क़स्बा का ! मैं तो भूल ही गया था किराये की साइकिल लेकर सवारी करना ! बैरागी जी को शुक्रिया, आपके परिचय का !

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