12/26/2008

भरोसा



।। भरोसा ।।



जब से यह दुनिया बनी है


तब से ही


दो कौमों में बँट गई है ।


एक, जो यकीन करते हैं,


जिन्हें नहीं सुहाता


सपनों का बिखरना


और इन्सान का बदलना ।


विश्‍वास टूटते हैं तो वे खुद टूट जाते हैं


फिर नहीं कर पाते भरोसा


न खुद पर न खुदा पर ।


दूसरे, जो बिखरे सपनों


को जोड़ते हैं बार-बार ।


विश्‍वास टूट रहे हैं,


इसलिए नहीं हारते वे ।


वे बुनते हैं नई राह


यह मानते हुए कि


एक उम्मीद का बुझना


दूसरे सपने का जागना है ।


जब से यह दुनिया बनी है


शायद तब ही से


दो कौमों में बँट गई है ।


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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता



यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001



कृपया मेरा ब्लाग ‘एकोऽहम्’ भी पढें ।

2 comments:

  1. बहुत ही सुंदर. आभार.

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  2. बहुत ही सुंदर, भरोसा तोडने वाले बहुत होते है, लेकिन जिन्दगी तो फ़िर भी चलती है...
    धन्यवाद

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