2/28/2009

कोई दीप जलाया होगा

गीत उल्फत का किसी और ने गाया होगा,
हादसों ने तुम्हें रातों में जगाया ह¨गा ।

आज फिर रहनुमाओं की झुकी-झुकी नज़रें,
आज फिर आदमी ने सर को उठाया होगा ।

रोशनी के लिए ताउम्र तरसता ही रहा,
उसने बस्ती में कोई दीप जलाया होगा ।

हरेक वक्त जो अपनों से रहा खौफ़ जदा,
वो मेरी मुल्क की तकदीर का साया होगा ।

शिवालयों में जिसने ढूँढा है हर बार खुदा,
उसने भगवान को अज़ान में पाया होगा ।

गोलियाँ सरहदों पे आज फिर चलीं ‘आशीष’
गु़फ्तगू करने को जालिम ने बुलाया होगा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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2/27/2009

आखिर क्यों?

क्यों होता है ऐसा
आखिर क्यों?

जब भी छूने को होती है
मंजिल
भ्रमित हो जाता हूँ
क्षितिज सा।

भाग्य और भरोसा
एक लगते हुए भी
हो जाते है दूर........ बहुत दूर........

और फिर दिखाई देने लगता है
एक नया क्षितिज

फिर शुरु हो जाती है
मंजिल पाने की
एक नई कोशिश ।

कभी - कभी सोचता हूँ
क्या सही राह पर
बढ़ रहा हूँ मैं ?


या भरोसे का यह क्षितिज
मात्र अहसास है
मंजिल होने का।

यदि ऐसा है तो
बदल लेना चाहिए
मुझे राह

भाग्य और भरोसे के क्षितिज की
मृग मरीचिका को छोड़
चुन लेनी चाहिए
ऐसी राह
जो चाहे कठोर हो
लेकिन मंजिल होने का
अहसास तो दिलाए ।

और यदि ये राह
सही है तो
अवश्य जाऊँगा मैं
भाग्य और भरोसे के क्षितिज से दूर
असली मंजिल की
तलाश में ।
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संजय परसाई की एक कविता

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2/26/2009

फिलहाल चैराहे पर है

पेट की जरूरत की घण्टी

दिमाग में बजी

और इस तरह जन्म हुआ

भूख के पहले अनुभव का


फिर सक्रिय हुए हाथ

अलबत्ता रोटी तक पहुँचने में

एक लम्‍‍बा वक्त गुजरा


रोटी से ही शान्‍‍त होती है

पेट की आग

यह अनुभव दूसरा था

भूख से रोटी तक की

यात्रा कर चुके अनुभव

फिलहाल चैराहे पर हैं।


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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता


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2/25/2009

झूठ का ही राज है

खोखला है ज़िस्म और खोखली ही जान है,
ये कोई इक बुत नहीं, अपना हिन्दुस्तान है ।

इसकी हर दीवार पर थी अम्न की इबारतें
गोलियों बारुद से अब भर गया मकान है ।

जिन फ़िजाओं में कभी होता था लोगों का मिलन,
आज सारे रास्ते क्यों बन गए वीरान हैं ?

झूठ हर जुबान पर है, झूठ का ही राज है,
सच तो हर पल मर रहा बिक रहा ईमान है ।

वहशत के दौर में क्या कुछ नहीं हमने सहा,
आदमी की भीड़ है, जाने कहाँ इन्‍सान है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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2/24/2009

समस्याओं के धुंधलके

बहुत दिनों से उधेड़बुन में था
जीवन की छोटी-मोटी
समस्याओं को लेकर




कोशिश में था हल की
लेकिन
छोटी - मोटी समझ
करता रहा नजरअन्दाज


लेकिन उस दिन
खिसक गई जमीन
पैरों तले से
जब सारी समस्याओं को
अपने सामने खड़ी पाया
थोड़ा लडखडाया
नेकिन घबराया नहीं
फिर शुरु हो गई
समस्‍याओं को
सुलझाने
कीएक कड़ी और बड़ी कोशिश ।


जब सोचा समाधान
तो थोड़ी राहत मिली
मन कुछ हल्क हुआ
और सोचने - समझने की
थोड़ी और शक्ति मिली ।


अब लगने लगा
कि जीवन कठोर जरुर है
लेकिन कदम सही राह पर बढ़े
तो मंजिल अवश्य मिलती है ।

और सचमुच
आत्मविश्वास बढ़ने के साथ-साथ
दिखाई देने लगी थी
समस्याओं के धुंधलके में
आशा की किरण।

और अहसास होने लगा था
कि एक और नई सुबह का
सूर्य उग रहा है
पूरे आत्मविश्वास के साथ
मंजिल पाने को।

और छँटने लगे थे
समस्याओं के गहरे - काले बादल
आत्मविश्वास के सूर्य की
पहली किरण के साथ ही।

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संजय परसाई की एक कविता


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2/23/2009

हिलगा रह गया तो

इस ग्रह की उन्तीस प्रतिशत भूमि में

मुझे वह टुकड़ा दिखला दो

जिस पर गड़े नहीं हों तुम्हारे

आदमखोर दाँत


मुझे मंजूर है

यदि वह निर्जन है

मुझे शिकवा न होगा

जो वहां पानी-पेड़ न हो


और रहा रोटी का सवाल

मुझे पता है यह भूख मेरी है

अब तक जिन्दा हूँ

इस भूख के सहारे


नहीं चाहिए मुझे

तुम्हारा यह स्वर्ण युग

वैकुण्ठ की सम्पदा भरा जीवन

मुझे मंजूर नहीं


तुमसे टूट कर ही

बन पाऊँगा बीज

हिलगा रह गया तो

सड़ जाऊँगा ।

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2/22/2009

जीएगा पंछी

बात इन्सान की हर बार करेगा पंछी,
दर्द हर दौर में जिस्मों से हरेगा पंछी ।

उनके महलों से उसे कोई मोहब्बत नहीं,
अपने आकाश में बेखौफ़ उड़ेगा पंछी।

अपनी आँखों को जमाए रखेगा धरती पर,
आसमानी बुलन्दियों को छुएगा पंछी।

छोड़कर दुनिया के हसीन ताजमहल,
अपनी ज़मीं और जन के बीच रहेगा पंछी ।

तीर कितने ही चलाए जालिम ज़माना
मौत के बाद भी हर बार जीएगा पंछी ।

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2/21/2009

बरसों बाद गाँव गया

बरसों बाद
गाँव गया
सब चिर-परिचित
चेहरे दिखे
सब पहले सा न था
वो बच्चे जो छोटे थे
अब बड़े हो गए
कभी गोद से
न उतरने वाले
अचरज से देखते
पौधे पेड़ बन चुके थे
शायद वो अब भी
मुझे पहचानते
झूम कर दे रहे
अपना परिचय
लेकिन
वो बरगद का पेड़
न दिखा
एक लम्बे इतिहास का गवाह
बरगद
आज खुद इतिहास बन गया
मोती भी अब न रहा
शेर सी बलिष्ठ काया का मोती
किसी गाड़ी के नीचे आ
छोड़ गया अपनी यादें
उण्डवा नदी ने भी बदल दी
अपनी राह
ऊपर से
सूखे ने चला दिया दराँता
धरती की फटी छाती
और उसमें से निकलती आग
उसकी प्यास का
अहसास करा रही है
बस स्टैण्ड भी चला गया
एक किलोमीटर दूर
बन गया एक नया गाँव
प्रकाश नगर
सड़क/जो हुई थी बननी शुरु
.....

संजय परसाई की एक कविता


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2/20/2009

जो रचते हैं प्रति-संसार

खुले में पड़े पत्थर भी हमेशा
ढंके नहीं रहते धूल से
झरे, सूखे पत्ते भी ढंक लेते हैं
ज़मीन का ऐब

वृक्ष के सबसे मीठे जातक होते हैं
सड़े हुए फल
मछलियाँ हों तो समझो
जल है निर्मल

रौंधी हुई माटी देती है
कभी फसल तो कभी शिल्प
रौंधे गए अवाम देते हैं
सिर्फ़ और सिर्फ़ विकल्प.
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2/19/2009

वायदों के पुल

एक कुर्सी के लिए कितने नज़ारे देखिए,
जो खुद ही लाचार हैं उनके सहारे देखिए।

सिर्फ है उजड़ा चमन और फैलता पतझड़ यहाँ,
और उनके हर तरफ बिखरी बहारें देखिए।

झूठ का है हर गली और हर सड़क पर आशियाँ,
सत्य की है हर कदम पर बस मज़ारें देखिए।

घोषणाओं-वायदों के पुल बने कितने यहाँ,
काम से ना वासता केवल हैं नारे देखिए।

सूचियों में मूल्य कितनी तीव्रता से बढ रहे,
है सुलभ चारों तरफ, दिन में भी तारे देखिए।

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2/18/2009

क्या अब भी ऐसा ही होगा मेरा गाँव



जब-जब गुजरता हूँ उस रास्ते से
कुछ किलोमीटर पहले से ही
बरबस खोजने लगती हैं निगाहें
पे़ड़ों के झुरमुट में छुपे
मन्दिरों के कंगूरों को ।
निगाहें, बस को पीछे छोड
पहले पहुँच जाना चाहती है
उस मन्दिर/उस जमीन
उन लोगों के पास
जो/दूर होने के बाद भी
लगते हैं अपने ।
लेकिन स्मृतियाँ
हावी होती जाती हैं
निगाहों पर ।
बा‘जी व रणछोड़सिंहजी का
सुबह-सुबह मन्दिर आना
और/दोपहरी में वहीं सुस्ताना
रामू, राजू, कृष्णा और शिवा का
तगारी या टोपले में
मूँगफली लाना और टिटोड़ी से फोड़ना
मोटी बाई और भालोड़न माँ का
पुजारन माँ के साथ
नासका लेना/और
अमावस, पूनम पर
राधेश्याम की आवाज के साथ
पिताजी का गाँव भ्रमण पर जाना
रह-रहकर याद आती है
वे बातें/जो अभी भी लगती हैं ताजा
नवोबा (निर्भयसिंहजी) का ब़ड़बड़ाते हुए जाना
और उमरावसिंहजी का
रचित को गामा पहलवान कहना ।
कितना अच्छा लगता था
भेरु की दादी का रचित को रषित कहना
कहाँ होती थी उन दिनों शब्दों की परख
उनमें उलझने, उन्हें समझने की झंझट
या/रचित और रषित में अन्तर
रह-रहकर याद आता है ।
जंगल के बहाने खाल (उण्डवा नदी) किनारे
जामुन व करमदे खाना
भोमला, बनेसिंह , बलराम और
बापूसिंह के साथ
मूँगफली खाना या कंचे खेलना
और/भुवानी बा से एक डिब्बा महुआ
या जुवार के बदले कुल्फी लेना
या नीम के पेड़ नीचे
मतीरे (तरबूज) की दुकान गलती देख
महुआ का डिब्बा ले दौड़ जाना ।
कुछ भी नहीं भूला
बस, सब अभी की बात लगती है ।
तेजा दसमी के आते ही गाँव जाना/और
बगदीराम बा की ढोलक की थाप पर
सूरजमलजी से रात भर
तेजाजी की कथा सुनना
और/डोल ग्यारस पर
शंकरलालजी व महेशजी के साथ
डोल सजाना ।
तैरती जाती है स्मृतियों में स्मृतियाँ
और खोलती जाती है, अतीत की खि़ड़कियाँ ।
बद्री नट के करतब
और वाइतन माँ की चन्दू बुआ का मिलना
या/रतनसिंहजी के यहाँ
धापू के साथ खेलना और झूला झूलना ।
बरखा की आस में
पटेलबा के कुए पर उज्जयनी करना
और बोर पर झूला बाँध झूलना ।
कुछ भी नहीं भूला मैं/बस
बस से गुजरते हुए अतीत को देखता जाता हूँ
वर्तमान के आईने में
और सोचता जाता हूँ
क्या अब भी ऐसा ही होगा मेरा गाँव ?


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2/17/2009

माँ, बहुत याद आई तुम

उन दिनो
हमारे घर के
बाहर की बारादरी
होती थी
पिता की बैठकी

मकान की
दोनों बगल
और सामने
जहाँ तक जाती थी
गली
सभी परिचित थे
पिता से

प्रायः
कभी इस बगल वाले
रामू काका तो
कभी उस बगल वाले
मिसिर जी
आ विराजते
पिता के पास
बाहर बारादरी में

फिर चलते
जल-पान और
चाय-पानी के दौर

म दौड़ते रहते
बाहर से भीतर
और भीतर से बाहर

चाय और पानी को
लिए-दिए

नमस्ते कहते
तो कभी प्रणाम करते
तो पैर छूते कभी

वे घरों में
लकड़ी की चिरायन्ध
कसैले धुँए
और गोबर की गन्ध के
दिन थे

मगर तब भी
हलाकान नहीं होती थी
माँ

उन दिनों
वे कहती -
‘‘बख़त पड़े
नाते-रिश्तेदारों से पहले
काम आता है
अपना ही पास-पड़ोस‘‘

नये पोस्टमेन ने कल जब
पड़ोस के बारे में पूछा
एक नाम ....... ?

माँ ।
बहुत याद आई तुम ।
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2/16/2009

दुनिया को जोड़िए



दिल में नफ़रत हाथों में हथियार से नहीं,
मसले भी हल होंगे पर तक़रार से नहीं ।

राहे-मुहब्बत में इकरार करना सीखिये,
बनता दिल का आशियाँ इनकार से नहीं ।

सोची-समझी बात अक्सर देती साथ है,
पाना हो मंजिलों को तो ऱफ्तार से नहीं ।

बेशक मज़ाक कीजिए अपनों से आप लोग,
लेकिन् ये खेल अब किसी लाचार से नहीं ।

दुनिया को बदलना हो तो दुनिया को जोड़िये,
ये काम तो होगा मग़र दो-चार से नहीं ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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2/15/2009

बहुत याद आई तेरी जुदाई

जब भी आई इकतीस जुलाई
बहुत याद आई तेरी जुदाई

यूं तो चर्चे होते हैं रोजाना
आज भरी आँखें, बरसी जो आई

सुना बहुत ‘सरल’ सौम्य थे तुम
ऐसे थे, तो खुदा को क्या भाई

अनवर-महेन्द्र में ढूंढते हैं तुमको
खुदा की नेमत से आवाज क्या पाई

लता भी कभी खफा थी तुमसे
गिले हुए दूर कहाँ रफी भाई

हुई होगी मुलाकात खुदा से जब
कहा होगा 'तूने गजब किया भाई'

तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे
कहा व चल दिए, गलत है भाई

यूँ तो हर एक दिवाना है तुम्हारा
हम सबसे अलग ये मानो रफी भाई ।
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2/14/2009

दीदी तुम्हारा ब्याह कब होगा ?

दीदी !
तुम्हारा ब्याह
कब होगा ?

तुम्हारे सपनों के
हरे बाँसों का जंगल
आ पहुँचा है
थर की भूरी-काली
बालू तक

दीदी !
तुम्हारा ब्याह
कब होगा ?

माँ का सिन्दूर
हर दिन
बापू के बलगम
के साथ
बह रहा है
लगातार

दीदी !
तुम्हारा ब्याह
कब होगा ?

ठीक तुम्हारी
गुड़िया की तरह

जिसके दूल्हे के लिए
बापू घुटनों के बल
घोड़ा बनते रहे
और माँ
‘छह मन चोखा त्यार कर‘1
जिसकी प्रतीक्षा में
वर्षों खड़ी होती रही
दरवाजे पर

दीदी !
माँ प्रतीक्षाहत् है
अपनी उम्र में
सुलगती हुई
और बापू
बिंधे हुए अश्व हैं
अपनी जिन्दगी के
आखिरी
छोर पर

और तुम
दीदी !
टिटहरी का
अण्डा हो

थर में
जिसकी
आँखों में
सपने हैं
हरे बाँस वन के.

दीदी !
तुम्हारा ब्याह
कब होगा ?
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1. भीली लोकगीत की पंक्ति2. कंक-59 में प्रकाशित.



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2/13/2009

रंगे-उल्फत उड़ाओ


वे तो सोते हैं सिर्फ ख़्वाब में जाने के लिए,
मैं तो जगता रहा हूँ ख़्वाब सजाने के लिए ।

जो लग चुके हैं तुमपे किस तरह छुपाओगे,

आईना रखता हूँ मैं दाग़ दिखाने के लिए।

जिसमें हो जाए भस्म पाप और अनैतिकता,
ऐसी चिंगारी लाओ आग लगाने के लिए ।

खून की होलियों से खूब ही नहलाया है,
रंगे-उल्फत उड़ाओ फाग बचाने के लिए ।

दूरियॉं दूर-दूर रहने से बढ़ीं कितनी,
पास तो आओ ज़रा, पास बुलाने के लिए ।

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2/12/2009

कितने भोले हैं बापूजी



दुःखों को खेल समझकर, खूब खेले हैं बापूजी
सित्तर में भी घर का बोझा, खुद झेले हैं बापूजी

एक बेटा तो गया राम के, दूजा अपनी बीवी घर
अकेले में रोते-रोते खुद बोले हैं बापूजी

दूर गाँव में बीवी करती, मेहनत और मजूरी
खुद भी दिन भर पीसते, न उफ् बोले हैं बापूजी

अपनों ने भी फेरी आँखें, खोज खबर न लेते हैं
उनकी भी तारीफ करते, कितने भोले हैं बापूजी

बेटे ने उम्मीद जगाई, लेकिन व¨ भी चला गया
अब तो केवल उसका ही बस, गम पाले हैं बापूजी ।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
बड़े बेटे के वास्ते, ऐसा बोले हैं बापूजी।

नहीं किसी का और आसरा, जीवन के इस मेले में
खुद तरकारी काटें, और रोटी बेले हैं बापूजी

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2/11/2009

एक बूढ़ी देह में

एक बूढ़ी देह में
सब कुछ बूढ़ा नहीं होता
जैसे उसकी खाँसी
जो हर गुजरते दिन के साथ
जवान होती है

जैसे उसकी एषणाएँ
अंधाती आँखों में
लावण्य की चाहत
शिथिल होती नासिकाओं में
घोंसले बनाती गन्ध
और वह सब -
जिसे जीवन में कभी
न किया न जीया
एक बूढ़ी देह में
जिसे कोई नहीं देखता
निरन्तर ऊर्जा एकत्र करता
उसका दिल

नसों के हर दिन सर्द होते खून में
न सही कोई सार्थक पहल
उसकी चेतना में बुढ़ाती नहीं अपनी छवि
अपने वजूद को भेदती

हर एक भूभंगी पर
उसकी तमाम झुर्रियां
तेंदुए की खाल सी सिमट
अपने सामर्थ्‍य भर
कांप उठती हैं प्रतिरोध में

एक बूढी देह
दांत और नाखून खोकर
भाषा में खोलती है अपना मोर्चा
और अवसान तक
बर्राती ही चली जाती है।
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2/10/2009

दुनिया नई बसा लें


लोग हैं तिरछे, तिरछी चालें,
यहाँ नहीं गलती हैं दालें ।

चलने से परहेज सभी को

कुर्सी के हैं सब मतवाले ।

अब तो तेरे ठाठ हैं बन्धु,

अंधियारे से कहे उजाले ।

हम तो ठहरे केवल डमरु,

कोई उठाले-कोई बजा ले ।

बेग़ैरत ये दुनिया देखी

आओ, दुनिया नईं बसा लें ।

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2/09/2009

शब्द शक्ति और सद्भाव

शब्द शक्ति

शब्द
हाँ शब्द ही तो हैं
जो मुझे
मैं और तुम का
अर्थ बताते हैं
जब
तुम नहीं थी
तो मैं
शब्द की शक्ति से
परिचित नहीं था ।
लेकिन
तुम जैसे ही
मेरे करीब आई
मुझे शब्द शक्ति का
अहसास होने लगा
मैं समझ गया कि
तुम्हारे आते ही
मैं, मैं नहीं रहा/आप हो गया
और आप, तुम ।
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सद्भाव


फिर कर रहे हैं
प़ड़ौसी पर विश्वास
बढ़ते आतंकवाद को
नजरअन्दाज कर
इस आस में
कि होगा
साम्प्रदायिक सद्भाव कायम
लेकिन/यह समय
विश्वास/अविश्वास का नहीं
कदम फूँक--फूँक कर
रखने का है ।
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संजय परसाई की दो कविताएँ

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2/08/2009

जो होता आ रहा है .....

देह में चाहे कहीं भी रहती हो
इस वक्त जान उसकी आँखों में थी
धरती का घूमना कम्पन और धसकना
खूब अच्छे से महसूस कर रहे थे उसके पैर

भूख के दाँत पंजे नाखून सभी
सक्रिय थे उसके पेट में
वहां क्या खा रही होगी - भूख
इसे भी वह जानता था - अच्छे से

इसी बीच बाहर शोर उभरा
भागकर आते हुए परिचित बूटों की पदचाप
फोश गालियों के संग बजती लाठियाँ
खपरेल को लौह किला
बता रही थी दुनिया को

उसे खींच कर बाहर निकाला गया

इधर लीपन उखड़ी भीतों
अधर में टिकी छत
हवा भरे मार-तमाम असबाब के चिह्न
मिटाने में जुटे रहे
लायसेंसधारी हाथ

उसे खींच कर बाहर लाया गया
धक्का देकर धकेला गया
आगे की तरफ

और उसके जमीन पर गिरने से पहले
एक अदद कारतूस की दी गई उसे सलामी

सभी सावधान मुद्रा में थे
केमरे चमके धड़ाधड़

जन गण मन
नहीं था किसी भी ओंठ पर

भू-लुण्ठित भारत भाग्य विधाता
कल सुर्खियों में लिखाएगा अपना नाम
एनकाउण्टर की लिस्ट में

यह भूखण्ड
एक नये नामान्तरण में दर्ज होगा ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।

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2/07/2009

सोचो



क्या तुमने महसूस की
अपनों की पीड़ा ?
तुम देख सकते हो
अपनों की मौत ?
यदि नहीं
तो क्यों करते हो वार
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी से?
क्या तुमने सोचा है
जब नहीं रहेंगे पेड़
तो तुम भी बच पाओगे?
सोचो.....खूब.....सोचो
पेड़ों के बारे में न सही
अपने बारे में ।
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संजय परसाई की एक कविता

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2/06/2009

काश कि ऐसा नहीं होता

निराला 'मँहगू' से बतियाये
नागार्जुन 'बुद्धू' को देते रहे समझाईश
''बुद्धू! तू मोची बनजा, दरजी बनजा''
रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में याद किया
फटा सुथन्ना पहने 'हरचरना'
धूमिल ने 'मोचीराम' से की लम्बी बातचीत
और 'इत्यादि
'राजेश जोशी के कलम से उतरे काग़ज़ पर

इस सर्वज्ञात को फिर से दुहराने की
नहीं है मेरी अभिलाषा

मैं देख रहा हूँ
मनुजता को दो-दो महायुद्धों में
झोंक देने वाले वे सभी अभियुक्त
वे सभी ताकतवर हिंस्‍त्र
जिन में जंगल खौफनाक रूप में
बाकी है अब भी

वे तक सुधर गए
आपस के परस्पर व्यवहार में
उनके बारूद अब नहीं पूछते
एक-दूसरे का नाम
छावनियों का पूरा ताना-बाना
सब बदल दिया हैं उन्होंने

और अब तो
समय-समय पर बनने वाली
मानव-श्रृंखलाओं से
कहीं अधिक मजबूत हैं
उनकी आपस में जुड़ी हथेलियाँ

जबकि फेंस के उस तरफ

मँहगू से बुद्धू नहीं बतियाता
मोचीराम और हरचरना के बीच
खड़ी है अटूट दीवार
नाम-रुपहीन इत्यादि की तो
बात ही क्या

'तुरपइ' करती लोहारिन
दमामा पीटते 'छगन बा' और
आंखों में सूनापन लिए 'अकबर खान'
वे बाहर हैं अभी
सर्वग्रासी बाज़ार की हत्यारी जद से
भय यहीं कहीं तलाशती हैं
वे ताकतवर कलुषित आत्माएँ ।



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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्‍‍वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्‍‍य काव्य संग्रह की एक कविता।

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2/05/2009

नए बहाने


राजा- रानी हुए पुराने,
कैसी कथा चले सुनाने ।

बम की चाहत सिर्फ तुम्हें हैं,
रोटी के हैं सभी दीवाने ।

बाज़ारों में मिलता सब-कुछ
नहीं हक़ीक़त सभी फ़साने ।

सच्चों की आवाज़ गुम हुई,
झूठों के हर कहीं तराने ।

किसकी बातें मानें आखिर
हर मुँह पर हैं नए बहाने ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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2/04/2009

खोज

वे ढूँढ रहे थे।
अपने अपने काम की वस्तुएँ
उन्हें विश्वास था कि
यही एक जगह है
जहाँ प्रतिस्‍पर्ध्‍दा तो है
लेकिन / बिना कुछ दिए
प्राप्त हो सकती हैं
वो वस्तुएँ / जो बन चुकी हैं
उनके जीवन का अहम् हिस्सा।
वे टूट पड़ रहे थे
कचरे के ढेर पर
एक लड़का
चुनने लगा था / कागज, पोलिथीन
लोहे के टूटे-फूटे डिब्बे/और
अन्य वस्तुएँ
दूसरे छोर पर / कुछ लड़के
चुनने का प्रयास कर रहे थे
बासी रोटी और फलों के अध सड़े टुकड़े
जो बच गए थे / गाय, कुत्तों
और सूअरों की निगाहों से ।
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संजय परसाई की एक कविता


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2/03/2009

गोचर है जिनकी अस्थियों का भूगोल

पृथ्वी पर उनका भार क्या होगा
गोचर है जिनकी अस्थियों का भूगोल

कपास की उतरन की भी उतरन से
काम चला लेते हैं - वे
बासी जूठन जिनके क्षुदित उदर का
महाभोग है उन्होंने कहां गड़बड़ाया
रसना प्रेमियों का गणित?

निरोगी हैं - वे इस अर्थ में कि
आयुर्वेद से अब तक बनी ही नहीं
उनके लिए कोई औषधि
फिर कैसे हैं - वे जीवन-रक्षक
दवाओं की बढ़ती कीमतों के अपराधी?

ऋषियों तक ने नहीं दी जिन्हें-विद्या
वे कैसे बिगाड़ सकते हैं
शिक्षा के मानक समीकरण?
सुई की नोक भर ज़मीन से वंचित
देश की सबसे बड़ी आबादी
रिहायशी हलकों का सिरदर्द
हों भी तो कैसे?

भले वे पात्र न हों सभ्य मुखौटे के बीच
शोभित होने वाले

अपनी भूमिका का
स्वंय उन्होंने किया है वरण
इतिहास की धाराएँ उन्होंने ही मोड़ी हैं
हर काल हर युग में वे ही बने हैं निमित्त
भू-मां की भार मुक्ति के ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर
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2/02/2009

ऐसी रीत नहीं है

सावन के वो गीत नहीं हैं,
पहले जैसी प्रीत नहीं है ।

रिमझिम-रिमझिम बरसे पानी,
बन्धु ! ऐसी रीत नहीं है ।

हम जीते हैं और वे हारे,
फिर भी अपनी जीत नहीं है ।

साज़ वही आवाज़ वही है,
लेकिन वो संगीत नहीं है ।

तरह - तरह से हमें डराया,
दिल अपना भयभीत नहीं है ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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2/01/2009

सफर

अक्सर होती है
उलझन
मन में उथल-पुथल
बस स्टॉप या रेलवे प्लेटफॉर्म पर
वहाँ पहँचते ही बढ़ जाती है धड़कनें
यात्रियों का रेला देखकर ।
हर स्टेशन पर होता है यही हाल
से चढ़ने वालों की संख्या दुगुनी
यदि डिब्बे में घुस भी गए
तो मजाल है कहीं टिक सको
सामान की सीट पर
लम्बे रुट की सवारी खर्राटे भरती
हैतो नीचे सीट की सवारी खा जाने वाली
निगाहों से घूरती है ।
और यही हम भी करते हैं
जब होते हैं सीट पर ।
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