5/18/2009

समानता

घड़ी और मनुष्य में
बहुत समानता है

घ़ड़ी भी चलती है
मनुष्य भी

घड़ी की तीन सुइयों के समान
बचपन, जवानी और बुढ़ापा है

सेकण्ड की सुई
साँसों के समान
अनवरत चलती है
टिक-टिक की आवाज
दिल की धड़कन सी लगती है

संयोग है कि
घ़ड़ी को मनुष्य चलाता है
लेकिन
सत्यता इसके विपरीत है
घड़ी ही मनुष्य को चलाती है

एक समय आता है
चलते-चलते घड़ी रुक जाती है
और
मनुष्य भी... ।
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संजय परसाई की एक कविता



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5/17/2009

ऐसे चन्दन

हमने भी ग़म देखे हैं,
ऐसे मौसम देखे हैं ।

जख्मों को गहरा कर देते,
वो भी मरहम देखे हैं ।

बीच राह में साथ छोड़ दे,
ऐसे हमदम देखे हैं ।

सर्पों को घायल कर देते,
ऐसे चन्दन देखे हैं ।

अपने ही अपनों को काटे,
किस्से हरदम देखे हैं ।

लाचारों से दूर भागते,
जाते, राशन देखे हैं ।

पानी की इक बूँद नहीं है,
वो भी सावन देखे हैं ।

जहां पै ‘अंकुर’ एक नहीं,
ऐसे उपवन देखे हैं ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/15/2009

हायफन

मैंने जब भी सोचा
रुका तभी जब
पहुंचा ‘हम’ तक।

तुमने जब भी सोचा
लांघ न पाई ‘मैं’ की झाडी।

मैं सोचता हूँ
जब हम एक हैं
तो फिर
यह विरोधाभास क्यों?

क्या अब भी
मेरे और तुम्हारे बीच
कोई हायफन (डेश)शेष है
जो हमें/एक होनेका
आभास तो कराता है
साथ ही भिन्नता का भी?

यदि तुम्हारा सोचना यह कि
हायफन मात्र से एकात्मकता सम्भव है
तो यह सबसे बड़ा वहम् है

हायफन शब्दों और अक्षरों को
तो जोड़ सकता है
दिलों और सम्बन्धों को नहीं ।

सोचता हूँ
क्या तुम भी कभी ‘मैं’ को पीछे छोड़
‘हम’ तक पहुँचोगी?
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संजय परसाई की एक कविता



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5/14/2009

सब सयाने हो गए

आदमी हैरान है,
लाचार परेशान है ।

भीड़ है चारों तरफ,
जाने कहां इंसान है ।

काशी -काबा हो आए,
देखा नहीं भगवान है ।

ज़िन्दगी के सफ़र में,
व़क्त का तूफान है ।

सब सयाने हो गए,
‘आशीष’ अभी नादान है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/12/2009

बेनूर आवाज

अब नहीं सुनाई देती
वो कर्कशी माधुर्य से
अलापती आवाज
और नहीं दिखाई देती
ईश्वरीय अभिशाप को भोगती
वो चार फुटी कद-काठी
अब तो वो चेहरे
दिखते हैं उदास
जो दिन-रात लेते थे
उसकी झि़ड़की ।

अब चाहकर भी
नहीं सुन सकते
उसकी लाचारी से भरी हूँकार
सौ गज दूर से
सुनाई देती
उसकी झिड़की
रहवासियों को देती थी सुकून
उसकी लाचारी में छिपा था
मोहल्लेवासियों का प्यार-अपनत्व
और
इसी स्नेह की बदौलत
वो पा लेता था
एक प्याली चाय
और सुलगती तम्बाकू का गहरा कश
लेकिन
स्टेशन की सड़कों को
रोशन करती वो बेनूर आवाज
सदा के लिए हो गई खामोश
अब चाहकर भी
कोई नहीं कहता
लो वो आ गया ‘अयूब’

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संजय परसाई की एक कविता

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5/11/2009

आशियाँ अब तो बना लो

हकीक़त से आज सटकर,
लीक से देखा है हटकर ।

दृश्य बतलाने लगा है,
बात अपनी ही उलटकर ।

पाप है उनके दिलों में,
बात करते जो मटककर ।

हमसफर जिसको बनाया,
चला है दामन झटककर ।

आया है दरिया भी देखो,
आँख में अपनी सिमटकर ।

आशियाँ अब तो बना लो,
खूब देखा है भटककर ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/09/2009

और तूफान शान्त हो गया

तूफान आते ही
हो जाती है
अच्छे-अच्छों की हालत पस्त
लेकिन
इस तूफान के आने से
होती थी हर एक को खुशी
अस्सी दशक को याद करती
मेण्टेन बॉडी वाले तूफान का
सरपट चले आना
सबको कर देता था
आश्चर्यचकित
और
अस्सी के पड़ाव पर भी
पचास से अस्सी धेला
खीसे में रख
जब मंगल करता
अपनी खपच्चियों की गुमटी
तो ब़ड़े-बड़े व्यापारी
दबा लेते थे
दांतों तले अंगुली
क्योंकि दिनभर
बी.पी., दमे व शुगर की
पु़डियों को फाँकते
जब अपनी आलीशान
दुकानों के शटर गिराते
तो सामने रखी
खपच्चियों की गुमटी
और मेण्टेन बॉडी
उनका मुँह चिढ़ाती ।
आज जरुर तूफान
बहुत तेजी से गुजर चुका है
लेकिन अपने पीछे
तबाही का मंजर नहीं
प्रेम और सौहार्द्र का
ऐसा गुलशन छोड़ गया है
जो सबके दिलों को
महकाता रहेगा ।
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5/08/2009

आईना

अपने दिल की बात दिखलाने लगा है आईना,
सामने ज़ज्बात दिखलाने लगा है आईना ।

कितना ही सजधज कर खड़े हो जाएं सामने,
आपकी औक़ात दिखलाने लगा है आईना ।

गले मिलते राम-औ रहमाँ एक पल को रुक गए
यूँ लगा कि जात दिखलाने लगा है आईना ।

खून के दरिया ही उसमें अब दिखाई दे रहे,
लगे है, हालात दिखलाने लगा है आईना ।

सुबह देखो उसमें या कि देखो उसमें शाम को,
हर घड़ी बस रात दिखलाने लगा है आईना ।

मुस्कुराते लोग कितने सामने उसके खड़े,
अश्कों की बारात दिखलाने लगा है आईना।

सामने आए तो ‘आशीष’ टूटकर बिखर गया,
कैसे-कैसे करामात दिखलाने लगा है आईना ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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5/06/2009

अपने उस बच्चे को जीवित रखें

लोग कहते हैं
कि अब मुझे गम्भीर हो जाना चाहिए
मेरी उम्र के हिसाब से
ये बच्चों सी हरकतें
शोभा नहीं देती
ये किलकारी मारकर हँसना
जोर-जोर से ताली बजाकर
किसी से हँसी-ठिठोली करना
समय भी चाहता है
कि उसके अनुसार
और उम्र के हिसाब से
व्यक्ति में परिवर्तन होना चाहिए ।

यदि उम्र पचपन की हो तो ?
तो भी
क्योंकि पचपन में
बचपन लौट आता है
और व्यक्ति/वो सारी हरकतें करता
है जो उम्र की शुरुआत
यानी बचपन में होती है ।

अब मुझे/गम्भीर होने की जरुरत नहीं है
इसलिए सभी पचपन को चाहिए
कि वो अपने बचपन के
बच्चे को जीवित रखे
उम्र के इस पड़ाव में
कम से कम
उसकी हत्या न होने दें ।
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संजय परसाई की एक कविता

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5/05/2009

करेंगे अब राज वे

देखिये वे आ रहे खूँखार अपनी बस्ती में,
सुना है वे करेंगे व्यापार अपनी बस्ती में ।

आज तो अपनों के मेले, हाट हैं बाज़ार हैं,
देखना कल उनका हाहाकार अपनी बस्ती में ।

बिजली देंगे, पानी देंगे और देंगे खाद वे,
करेंगे अब राज वे मक्कार अपनी बस्ती में ।

जाग जाओ, अब संभलने का समय है आ गया,
गीत गाता फिर रहा फनकार अपनी बस्ती में ।

जाने कब हो जाए दस्तक अब यहाँ सरकार की,
है डरा-सहमा-परेशाँ, हर द्वार अपनी बस्ती में ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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5/03/2009

चिड़िया

चिड़िया
चाहती है छूना
आकाश की ऊँचाइयों को
उड़ती भी है
लेकिन शिकारियों/और
जंगली भेड़ियों के डर से
पुनः लौट आती है
घोंसले में।


सोचती है चिड़िया
क्या बच पाएगी
वहशी और दरिन्दे जानवरों से?
क्या छू पाएगी कभी
आकाश की ऊँचाइयों को?
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5/02/2009

आजकल

बेवजह का जोर देखो आजकल,
शोर ही बस शोर देखो आजकल ।

रोशनी लाने की कोई सोचता नहीं,
फैला है घनघोर देखो आजकल ।

वायदों के पुल पै’ सरकारें टिकी है,
झूठ है चहुँ और देखो आजकल ।

अपना घर खुला रखें किसके यकीं से,
गुज़रते बस चोर देखो आजकल ।

है पतंग अपनी मग़र क्या कीजिए,
पड़ौसी के हाथ में डोर देखो आजकल ।
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5/01/2009

मई दिवस के वीरों के नाम

जब कि पलाश के अनुराग में नहाए पहाड़
पके करोंदों की ख़ुशबू से भरे गए हैं
जब कि मतवाले कोकिल ने
अमराइयों को मथ दिया है

जबकि अपना सुर्ख दिल ले कर
हरियाली के झुरमुटों से
झाँक रहे हैं गुलमोहर

मई दिवस के शहीदों!
मैं तुम्हें भेजता हूँ सलाम
इस वास्ते के साथ
कि तुम्हारी छाती से फूटे
खून के फव्वारों में नहाया
वह सुर्ख़ परचम
अपनी पूरी शिद्दत के साथ
फड़फड़ा रहा है हमारी धमनियों में
लहू की रफ्तार के साथ
और तार तार होने के बावजूद
हमारीं उम्मीदें गूँज रही हैं
हाँ, बावजूद इसके कि आस्मानों के रंग
और ज़्यादा स्याह हो गए हैं

शिकागो के वीरों! निष्पाप लोगों!!
तुम लड़े कि धमनभट्टियों में सुलगते
कारख़ानों के पहियों में मशीन बन गए
ज़िन्दा आदमी को हासिल हो उसके पूरे हुक़ूक
और लम्हात
कि वह दानिशमन्दों के लिखे
रोशनी के हरूफ़ बाँच सके,
गिटार बजा सके
घर की मुँडेर पर बैठ कर चांदनी
रात में
जंगल में उलझे बड़े से चाँद को देख सके
आँख भर कर और छेड़ सके
नभ के मान सरोवर में तारों के मोती चुगते
बादल-हंसों को

ठहाके लगाए बच्चों के साथ
और अंगीठी की आँच में दमकते
अपनी नाज़नीन के चेहरे का दीदार करे

शिकागो के वीरों
सचमुच बहुत कडुवे दिन हैं ये
हम हिन्दुस्तानियों के

बुझे हुए हैं मन के देवालय
वीरान पड़ी हुई हैं अन्तर्मन से उठी प्रार्थनाएँ
और कुछ इस क़दर टूट गए हैं धागे
कि जुड़ तो गए हैं पर गाँठ पड़ गयी है

और फिरंगी हैं कि फिर आ पहुंचे हैं

लोकगीतों से कहीं खो नही जाए
सदा के लिए हमारी
तुलसी का बिरवा और नीम का पेड़

पर यह भी उतना ही सच है कि
चटख चटख कर टूट रहे हैं
इतिहास के काले अंधेरे
और गूंज रहे हैं आस्मानों में मुक्तिगान

शिकागो की सड़कों पर
तुम्हारे ख़ून में सना परचम
अब एक उफनता सैलाब बन गया है

उफनते सैलाब और हवाओं के इन दिनों में
मैं तुम्हारा इस्तकबाल करता हूँ
मई दिवस के वीरों!
तुम्हें सलाम करता हूँ।
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रचना दिनांक 28 अगस्त 1994

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित।
साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।
इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी ‘द ब्राइड’ और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
सम्प्रति - शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत।
सम्पर्क : 6, कस्तूरबा नगर, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001. दूरभाष - 07412 264124


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